बिना कुछ किए अगर जीवन चलाने भर का पैसा मिल जाए तो भी जर्मनी के लोग काम करना छोड़ते या घटाते नहीं हैं. हां ये जरूर है कि उनकी मानसिक स्थिति दूसरों से बेहतर हो जाती है.
जर्मनी में हाल ही में हुए एक रिसर्च के बाद जो नतीजे आए हैं उससे यह जानकारी मिली है कि मुफ्त में पैसा मिले तो भी लोग काम नहीं छोड़ते. रिसर्च में 107 लोगों को बिना किसी काम के हर महीने 1,200 यूरो की रकम तीन साल तक दी गई. उसके बाद उनकी तुलना 1,580 लोगों के एक समूह से की गई जिन्हें इस तरह का कोई पैसा नहीं मिल रहा था.
यूनिवर्सल बेसिक इनकम
"यूनिवर्सल बेसिक इनकम" यानी सबके लिए आधारभूत आय के बारे में जानकारी जुटाने के लिए यह प्रयोग किया गया. कुछ अर्थशास्त्री मानते हैं कि अगर लोगों को उनके मूलभूत खर्चों के लिए बिना कुछ किए हर महीने पैसे दे दिए जाएं तो उससे उनका जीवन, काम और देश की अर्थव्यवस्था बेहतर होगी. दूसरी तरफ इसके आलोचक दूसरे कल्याणकारी उपायों की तरह इसके प्रभावों को लेकर आशंका जताते हैं और इसे लंबे समय के लिए उपयोगी नहीं मानते. इससे जुड़े प्रयोग कई देशों में किए जा रहे हैं.
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जर्मनी में प्रयोग के दौरान पता चला कि जिन लोगों को पैसा मिल रहा था उन्होंने अपना काम जारी रखा. रिसर्च के बाद प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया है कि इस पैसे के आने के साथ ही जीवन से उनकी संतुष्टि बढ़ गई. उनमें अपने जीवन पर बेहतर नियंत्रण का भाव जगा.
कैसे बेहतर हुआ जीवन
यह प्रयोग जर्मन इंस्टिट्यूट फॉर इकोनॉमिक रिसर्च (डीआईडब्ल्यू) ने किया है. पैसा पाने वाले लोगों ने औसत रूप से हर हफ्ते चार घंटे ज्यादा समय सामाजिक गतिविधियों में बिताया. खासतौर से उन लोगों की तुलना में जिन्हें यह पैसा नहीं मिल रहा था. रिसर्चरों का कहना है कि शायद यह उनकी जेब में ज्यादा पैसा होने की वजह से हुआ. रिसर्चरों ने लिखा है, "सामाजिक गतिविधियां अकसर खर्चों के साथ आती हैं, अब यह चाहे रेस्तरां जाना हो, सिनेमा के टिकट या फिर संयुक्त रूप से खाली समय में किए जाने वाले काम."
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रिसर्चरों ने यह भी बताया है कि जीवन में आई बेहतरी पूरे प्रयोग के दौरान बनी रही. हालांकि यूनिवर्सिल बेसिक इनकम पाने वाले प्रतिभागियों की राजनीतिक प्रतिबद्धताओं या फिर मनोवैज्ञानिक लक्षणों में कोई बदलाव नहीं देखा गया, मसलन जोखिम उठाने की इच्छा.
वियना यूनिवर्सिटी ऑफ इकोनॉमिक्स एंड बिजनेस की मनोविज्ञानी सूजान फिडलर इस रिसर्च रिपोर्ट के लेखकों में हैं. उनका कहना है, "रिसर्च में हिस्सा लेने वालों ने अलग रवैया इसलिए नहीं दिखाया कि उनका व्यक्तित्व बदल गया बल्कि उनकी संभावनाएं बदल गईं."
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कहां खर्च किया लोगों ने पैसा
रिसर्च में पता चला कि लोगों ने बिना शर्त मिले पैसे का करीब एक तिहाई हिस्सा बचत के लिए रखा. आमतौर पर मासिक आय का एक तिहाई हिस्सा लोग औसत रूप से बचत के लिए रखते हैं. जिन लोगों को यह पैसा मिल रहा था उनकी दूसरे लोगों की तुलना में बचत करीब दोगुनी हो गई.
इसके अलावा करीब 8 फीसदी रकम लोगों ने समाजसेवा जैसे कामों पर खर्च किया या फिर अपने परिवार, दोस्त या रिश्तेदारों पर. पैसा मिलने के बावजूद किसी भी शख्स ने अपने काम में कमी नहीं की.
अब तक का सबसे बड़ा प्रयोग
2020 में बर्लिन के एक सामाजिक संगठन माइनग्रुंडआइनकोम, वियना यूनिवर्सिटी ऑफ इकोनॉमिक्स एंड बिजनेस और डीआईडब्ल्यू ने मिलकर यह प्रयोग किया. जर्मनी में प्रयोग के लिए ऐसे लोगों को चुना गया था जिनकी उम्र 21 से 40 साल के बीच थी और जो सिंगल थे. इन्हें तीन साल तक हर महीने 1,200 यूरो दिए गए. यह पैसा मिलने से पहले ये लोग 1,100 से 2,600 यूरोप हर महीने कमा रहे थे.
रिसर्चरों का कहना है कि प्रयोग के नतीजे उत्साहजनक हैं लेकिन अभी कई और बिंदुओं पर इन्हें परखना होगा. अलग-अलग पृष्ठभूमि और परिस्थितियों में रहने वाले लोगों पर अध्ययन करने के बाद ही पक्के तौर पर नतीजे हासिल हो सकें.
लोगों का जीवन बेहतर बनाने और अर्थव्यस्था को आगे ले जाने के लिए जिन उपायों की चर्चा हुई है उनमें यूनिवर्सल बेसिक इनकम पर विचार कई सालों से हो रहा है. हालांकि हाल के वर्षों में इसे लेकर चर्चा की गंभीरता बढ़ गई है. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के आने से बेरोजगारी बढ़ने की आशंकाओं ने भी इन उपायों पर चर्चा और प्रयोगों को मजबूती दी है. जर्मनी में डीआईडब्ल्यू का इस बार का प्रयोग अब तक का सबसे बड़ा था.
साल 2017-18 में इसी तरह की एक स्टडी फिनलैंड में हुई थी. उस रिसर्च के भी इसी तरह काफी सकारात्मक नतीजे आए थे. यूरोप के कुछ और देश भी इन उपायों पर विचार कर रहे हैं.